पिताजी का बैग – एक दिल छू लेने वाली प्रेरणादायक कहानी (Motivational Story in Hindi)

Admin
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“पिताजी का बैग” एक प्रेरणादायक हिंदी कहानी है जो परिवार, भावनाओं और रिश्तों की गहराई को दर्शाती है। यह दिल छू लेने वाली कहानी आपको सोचने पर मजबूर कर देगी।

 

पिताजी का बैग – एक दिल छू लेने वाली प्रेरणादायक कहानी (Motivational Story in Hindi)
पिताजी का बैग – एक दिल छू लेने वाली प्रेरणादायक कहानी (Motivational Story in Hindi)

“पिताजी, आपका एक बैग मैंने तैयार कर दिया है और दूसरा खाना खाने के बाद लगा दूंगी। कुछ और रखना हो तो याद दिला देना,” सिया ने अपने ससुर को खाना परोसते हुए कहा।

“हाँ बेटा, कोई जल्दी नहीं है। आराम से कल सुबह कर देना। आज तो तुम थक भी गई होगी, तुम सो जाना,” पिताजी ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया।

सिया ने धीरे से सिर हिलाया और चुपचाप थाली में सब्ज़ी डालते हुए अपने विचारों में डूब गई। आज पहली बार वो पिताजी को तीन महीने के लिए वृद्धाश्रम भेज रही थी। नहीं, ज़बरदस्ती नहीं — बल्कि खुद पिताजी की मर्ज़ी से। लेकिन मन तो बहू का ही था, बेटी जैसा।

तीन महीने पहले की बात थी। घर में सब कुछ सामान्य चल रहा था। सिया, एक बैंक में असिस्टेंट मैनेजर थी और उसका पति रजत एक सॉफ्टवेयर कंपनी में टीम लीडर। दोनों का व्यस्त जीवन था, मगर घर लौटने के बाद जो सुकून उन्हें मिलता था, उसमें पिताजी की अहम भूमिका थी।

पिताजी की रिटायरमेंट को पाँच साल हो चुके थे। अब वो ज़्यादातर समय किताबें पढ़ते, बगीचे में पौधों से बात करते या अपने पुराने दोस्तों से मिलने चले जाते। लेकिन पिछले कुछ महीनों से उनके स्वास्थ्य में गिरावट आनी शुरू हो गई थी — ना मानसिक रूप से, बल्कि भावनात्मक रूप से।

रजत भी अक्सर अपने पिता को चुपचाप खिड़की के पास बैठे देखते, जहां से वो सूरज को डूबते हुए देखते थे। एक दिन उन्होंने पिताजी से पूछा, “क्या कुछ चाहिए आपको, पापा?”

पिताजी ने केवल इतना कहा, “बस थोड़ा बदलाव चाहिए। मन करता है कहीं दूर चला जाऊं कुछ समय के लिए। वृद्धाश्रम में मेरे दो पुराने मित्र हैं, सोचा कुछ समय वहाँ बिताऊं।”

यह सुनकर रजत और सिया दोनों हक्के-बक्के रह गए। क्या पिताजी अब घर से ऊब गए थे? क्या हमसे कोई गलती हो गई? नहीं, ऐसा कुछ नहीं था। पिताजी ने मुस्कुराकर कहा, “बेटा, ये निर्णय तुम लोगों के बोझ को कम करने के लिए नहीं है। मैं खुद को फिर से खोजना चाहता हूँ। थोड़ा समय चाहिए बस।”

सिया ने बहुत समझाया, “पिताजी, ये घर आपका है। आप कहीं नहीं जाएंगे।”

मगर पिताजी अपनी बात पर अडिग रहे। “मैं वहाँ रहकर देखूंगा कि क्या अब भी मैं उस जीवन का हिस्सा हूँ जहाँ सिर्फ उम्र नहीं, अनुभव भी गिना जाता है।”

सिया मान गई — मगर एक शर्त पर: पिताजी को हर रविवार वीडियो कॉल करना होगा और रोज़ एक बार सिया से बात करनी होगी।

आज शाम सिया ने खुद पिताजी का बैग पैक किया था। पुराने ऊनी स्वेटर, उनका पसंदीदा ब्लैक डायरी, कुछ किताबें और चश्मा। साथ में एक छोटा सा रेडियो, जो पिताजी को रात में सुनना अच्छा लगता था।

“पिताजी, आपकी दवाइयाँ कौन-सी ले जानी हैं?” सिया ने पूछा।

“डॉक्टर की दी हुई तीन, और बस वही जो तुमने लिस्ट बनाई थी। सब रख लिया है क्या?”

“जी पिताजी। सिर्फ खाना खा लीजिए, फिर बाकी चीज़ें देख लेंगे।”

रात को सबने साथ में खाना खाया। माहौल सामान्य था, लेकिन सिया की आंखें बार-बार नम हो जाती थीं। पिताजी ने हल्के मज़ाक से सबका मूड हल्का करने की कोशिश की।

“बहू, वृद्धाश्रम में अगर कोई तुम्हारे जैसा खाना बना दे, तो समझ लेना जन्नत मिल गई।”

सिया मुस्कुरा दी, “पिताजी, आपने आज फिर से मज़ाक कर दिया।”

जब सिया इस घर में नई-नई आई थी, तो सबसे पहले पिताजी ने ही उसे अपनाया था। शादी के बाद के वो कठिन दिन, जब सब चीज़ें अजनबी लगती थीं, तब पिताजी की एक मुस्कान सिया को राहत देती थी।

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“बेटा, अगर कभी कुछ कहने का मन करे, तो याद रखना मैं केवल ससुर नहीं, एक पिता भी हूँ।” ये शब्द आज भी सिया के दिल में गूंजते हैं।

आज उसी पिता को वो अपने हाथों से तीन महीने के लिए विदा कर रही है।

सुबह जल्दी सिया ने पिताजी को चाय दी और उनका दूसरा बैग भी तैयार कर दिया। रजत ने कार स्टार्ट की। वृद्धाश्रम शहर से बाहर एक हरियाली वाले इलाके में था — शांत, सुकून भरा और हर ज़रूरत की सुविधा से सुसज्जित।

रास्ते भर पिताजी खिड़की से बाहर देखते रहे। कभी-कभी सिया की तरफ देखते और हल्का मुस्कुरा देते।

“बेटा, ज़रा रुकवाओ गाड़ी। वो पेड़ देखो — वही तो है जहाँ मैं कॉलेज के दिनों में बैठा करता था।”

सिया ने देखा, एक पुराना पीपल का पेड़। पिताजी की आंखों में चमक आ गई थी।

वृद्धाश्रम एक सुंदर जगह थी। वहां पहले से मौजूद बुज़ुर्गों ने पिताजी का स्वागत किया। जैसे ही सिया ने उनका कमरा देखा, तो राहत की सांस ली। हर चीज़ साफ-सुथरी और व्यवस्थित थी।

“पिताजी, अगर कुछ भी चाहिए तो फौरन फोन करना,” सिया ने कहा।

“बिलकुल बेटा। और हां, खाना भेजने की ज़रूरत नहीं — यहाँ भी अच्छा ही मिलेगा।”

सिया ने पिताजी का माथा चूमा और धीरे-धीरे कार की ओर बढ़ी। उसकी आंखें नम थीं, लेकिन दिल में संतोष था कि उसने पिताजी की इच्छा का सम्मान किया।

तीन महीने जैसे उड़ गए। हर रविवार की वीडियो कॉल में पिताजी ने अपनी नई कविताएँ सुनाईं, नए दोस्तों से मिलवाया और अपनी दिनचर्या साझा की।

आज वो वापस आ रहे थे। घर में फिर से चहल-पहल थी।

सिया ने वही दाल बनाई जो पिताजी को पसंद थी। रजत स्टेशन लेने गया।

जैसे ही पिताजी अंदर आए, सिया ने मुस्कुरा कर कहा, “पिताजी, आपका कमरा तैयार है। और हाँ, खाना खाने के बाद बैग भी खोल दूंगी। कुछ और रखना हो तो याद दिला देना।”

पिताजी ने मुस्कुराकर कहा, “हाँ बेटा, कोई जल्दी नहीं है, आज तो तुम थक भी गई होगी, आराम कर लो। लेकिन एक बात है…”

“क्या पिताजी?”

“अब मुझे कहीं और नहीं जाना। मुझे समझ आ गया कि घर की दीवारों में नहीं, रिश्तों में जीवन होता है।”

“पिताजी का बैग” केवल एक यात्रा की कहानी नहीं, बल्कि रिश्तों की गहराई और भावनाओं की संवेदनशीलता को दर्शाती है। यह कहानी हमें यह सिखाती है कि कभी-कभी हमें अपनों की भावनाओं को समझने के लिए उन्हें थोड़ा समय देना होता है — और फिर, रिश्ते और भी मजबूत हो जाते हैं।

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