अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने शनिवार को ब्रिक्स देशों को कड़ी चेतावनी दी है कि अगर उन्होंने अमेरिकी डॉलर को कमजोर करने या अन्य मुद्रा का समर्थन करने की कोशिश की, तो उन्हें भारी टैरिफ का सामना करना पड़ेगा। उनके निशाने पर ब्रिक्स देशों के वे सदस्य हैं, जिनमें भारत, रूस, चीन, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, मिस्र, इथियोपिया, संयुक्त अरब अमीरात और ईरान शामिल हैं। ट्रंप का यह बयान इस बात को लेकर था कि अगर इन देशों ने अमेरिकी डॉलर की जगह किसी दूसरी करेंसी को बढ़ावा देने की कोशिश की तो उन्हें 100 प्रतिशत टैरिफ का सामना करना पड़ेगा।

ब्रिक्स देशों पर ट्रंप की टेढ़ी नजर
ट्रंप ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स (पूर्व ट्विटर) पर लिखा, “डॉलर से दूर होने की ब्रिक्स देशों की कोशिश में हम मूकदर्शक बने रहें, यह दौर अब ख़त्म हो गया है।” उन्होंने अपने बयान में कहा कि इन देशों से यह सुनिश्चित करने के लिए प्रतिबद्धता चाहिए कि वे अमेरिकी डॉलर के खिलाफ कोई नई मुद्रा नहीं बनाएंगे और न ही किसी दूसरी मुद्रा को बढ़ावा देंगे। ट्रंप ने कहा, “अगर ब्रिक्स देश ऐसा करते हैं तो उन्हें अमेरिकी अर्थव्यवस्था में अपने उत्पादों की बिक्री पर अलविदा कह देना होगा।”
डॉलर की ताकत और ब्रिक्स देशों की मंशा
अमेरिकी डॉलर की स्थिति वैश्विक अर्थव्यवस्था में बेहद मजबूत है। लगभग 65 प्रतिशत विदेशी मुद्रा भंडार अमेरिकी डॉलर में होता है। यही नहीं, अंतरराष्ट्रीय व्यापार में भी डॉलर की अहम भूमिका है। लेकिन ब्रिक्स देशों, विशेष रूप से चीन और रूस, लंबे समय से अमेरिकी डॉलर के मुकाबले अपनी करेंसी को प्रोत्साहित करने की कोशिश कर रहे हैं। यह दोनों देश वैश्विक ताकतों के खिलाफ एक नया गठबंधन बनाने की दिशा में काम कर रहे हैं, ताकि अमेरिकी डॉलर की एकाधिकार स्थिति को चुनौती दी जा सके।
रूस और चीन के संबंध पिछले कुछ वर्षों में और भी मजबूत हुए हैं, खासकर यूक्रेन पर रूस के हमले के बाद। चीन ने पहले ही कई देशों के साथ अमेरिकी डॉलर के बजाय अपनी मुद्रा युआन में व्यापार करने की पहल की है। रूस भी अपनी मुद्रा रूबल में व्यापार कर रहा है, विशेषकर उन देशों के साथ जिन पर अमेरिका ने कड़े आर्थिक प्रतिबंध लगाए हैं।
ब्रिक्स देशों का वित्तीय नेटवर्क बनाना
ब्रिक्स देशों के एक साथ आने की मुख्य वजह यह है कि वे अमेरिकी और पश्चिमी देशों द्वारा संचालित वैश्विक वित्तीय नेटवर्क से बाहर निकलने की योजना बना रहे हैं। “स्विफ्ट” (SWIFT) जैसे अंतरराष्ट्रीय भुगतान प्रणाली पर पश्चिमी देशों का दबदबा है, और जब किसी देश पर प्रतिबंध लगाया जाता है तो उसे इस सिस्टम से बाहर कर दिया जाता है। यही कारण है कि ब्रिक्स देशों ने एक वैकल्पिक वित्तीय नेटवर्क बनाने पर विचार करना शुरू किया है।
हाल ही में, चीन ने ब्राजील और सऊदी अरब के साथ अपनी मुद्रा युआन में व्यापार करने के समझौते किए हैं। भारत ने भी रूस के साथ युआन और रूबल में व्यापार समझौते किए हैं। इस तरह के कदम ब्रिक्स देशों की अमेरिकी डॉलर के विकल्प की तलाश को संकेतित करते हैं। हालांकि, यह कहना जल्दबाजी होगी कि वे डॉलर का वास्तविक विकल्प बना पाएंगे, क्योंकि इसके लिए वैश्विक स्तर पर व्यापक समन्वय की आवश्यकता होगी।
क्या ब्रिक्स देशों का डॉलर के विकल्प के रूप में एक नई मुद्रा बनाना संभव है?
अर्थशास्त्रियों का मानना है कि हालांकि ब्रिक्स देशों ने इस दिशा में कुछ पहल शुरू की है, लेकिन अभी भी बहुत दूर की बात है कि वे किसी ऐसी वैश्विक मुद्रा का निर्माण कर सकें, जो अमेरिकी डॉलर को चुनौती दे सके। रॉबिंद्र सचदेव, विदेश मामलों के जानकार, का कहना है, “ब्रिक्स देशों ने इस दिशा में कदम बढ़ाया है, लेकिन इससे पहले अमेरिकी डॉलर का स्थान लेना एक जटिल प्रक्रिया होगी। इन देशों के बीच भाषा और अर्थव्यवस्था का अंतर है, जिससे एक साझा मुद्रा की कल्पना करना मुश्किल है।”
ट्रंप का डर और उसका कारण
ट्रंप को यह चिंता है कि अगर डॉलर की स्थिति कमजोर होती है, तो अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर इसका गंभीर असर पड़ेगा। डॉलर की मजबूती अमेरिका के वैश्विक प्रभुत्व का प्रतीक मानी जाती है, और यदि ब्रिक्स देशों ने अमेरिकी डॉलर के मुकाबले अपनी मुद्रा को स्थापित कर लिया, तो यह अमेरिकी वैश्विक नेतृत्व को कमजोर कर सकता है।
ब्रिक्स देशों के बीच सहयोग और समझौते की बढ़ती संख्या से ट्रंप को यह डर है कि इन देशों का गठबंधन अमेरिकी अर्थव्यवस्था के लिए चुनौती बन सकता है। खासकर, यदि ब्रिक्स देश न्यू डेवलपमेंट बैंक (NDB) जैसे संस्थानों के माध्यम से डॉलर के बजाय स्थानीय मुद्राओं का इस्तेमाल करने लगे, तो इससे डॉलर की स्थिति पर असर पड़ सकता है।
अंत में क्या होगा?
ब्रिक्स देशों के डॉलर के विकल्प पर चर्चा और ट्रंप की चेतावनी ने वैश्विक वित्तीय माहौल में हलचल मचा दी है। हालांकि, विशेषज्ञों का मानना है कि डॉलर का मुकाबला करना आसान नहीं होगा, लेकिन इन देशों की बढ़ती आकांक्षाएं और उनके आर्थिक गठबंधनों से अमेरिकी डॉलर के प्रभुत्व को चुनौती दी जा सकती है। आने वाले समय में यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या ब्रिक्स देशों के प्रयास सफल होते हैं, या फिर अमेरिकी डॉलर की ताकत कायम रहती है।