इस कहानी में कालोनी के एक पार्क में क्रिकेट खेलते उत्साही किशोरों की यात्रा है, जो माता-पिता की कड़ी पाबंदियों और सामाजिक अपेक्षाओं से परे अपनी टीम बनाते हैं और खेल में सफलता की ओर बढ़ते हैं।

कालोनी के पार्क से ‘चौक्का’, ‘छक्का’ का शोर गूंजने लगा था।’ यह आवाज़ उस दिन पूरे मोहल्ले में सुनाई दी थी। जैसे ही सुबह की हल्की धूप ने पार्क में कदम रखा, क्रिकेट के इस छोटे से मैदान में उत्साही किशोर खिलाड़ियों की टोली जमा हो गई। आर्यन, वीर, निखिल, समीर, जय, विशाल, आलोक, और मोहन— ये सभी बच्चे क्रिकेट के दीवाने थे। परीक्षा का समय करीब था, लेकिन इन बच्चों को तो सिर्फ क्रिकेट का ही ख्याल था। मम्मी-पापा की नसीहतें इन पर का असर नहीं कर रही थीं। उन्हें कहां फिक्र थी पढ़ाई की, जब खेल ही उनकी ज़िंदगी का मुख्य आकर्षण बन चुका था।
पार्क में बल्ले की आवाज़ और गेंद की टकराहट के बीच इन बच्चों की खुशी का कोई ठिकाना नहीं था। निखिल तो जैसे मम्मी की नजरों से बचकर घर से चुपके से निकल पड़ा था। उसकी मम्मी ने जैसे ही दूधवाले की आवाज़ सुनी, वह बाहर आ गईं। निखिल को चुपके से बाहर जाते देख उनकी आंखों में गुस्सा था। ‘‘तुम्हें तो कुछ समझ नहीं आता!’’ मम्मी ने उसे डांटा, और निखिल का चेहरा उतर गया। लेकिन जैसे ही वह पार्क पहुंचा और अपने दोस्तों से मिला, उसकी सारी परेशानी दूर हो गई। ‘‘मम्मी-पापा तो हमें कुछ समझते ही नहीं,’’ उसने चिढ़ते हुए कहा, ‘‘हमारे पसंद-नापसंद से उन्हें कोई मतलब नहीं है।’’
विशाल ने जवाब दिया, ‘‘अगर सचिन और गावस्कर के मम्मी-पापा भी उनके साथ ऐसा व्यवहार करते, तो वे क्रिकेट के सम्राट कैसे बनते?’’
आर्यन भी खफा था। ‘‘क्या बताएं यार, मेरे पापा ने तो रात को मेरा बैट कहीं छिपा दिया था!’’ उसने गुस्से में कहा। लेकिन इन सबकी बातों के बावजूद, ये सभी बच्चे मैदान में खेलने के लिए आए थे और क्रिकेट की दुनिया में खोने के लिए तैयार थे।
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शनिवार का दिन था और सब बच्चे पार्क में इकट्ठे हो चुके थे। मोहल्ले के बाकी लोग अवकाश का आनंद ले रहे थे। कहीं लोग लंच के लिए बाहर जाने की योजना बना रहे थे, तो कहीं घर में लजीज नाश्ता तैयार हो रहा था। लेकिन इन सभी किशोरों की तवज्जो सिर्फ क्रिकेट पर थी।
पार्क के दूसरी ओर राघवजी का बड़ा सा बंगला नजर आ रहा था। वहां की कहानी कुछ अलग थी। राघवजी का इकलौता बेटा गौरव, जो इन बच्चों के ही उम्र का था, बिल्कुल खेलकूद से दूर था। उसकी मम्मी शारदा, जो एक कड़े अनुशासन में बंधी हुई महिला थी, ने अपने बेटे को हर तरह के खेल और मौजमस्ती से पूरी तरह दूर रखा था। ‘‘खेलकूद से कोई भविष्य नहीं बनता,’’ शारदा का कहना था। वह हमेशा गौरव को पढ़ाई में ही व्यस्त रखने की कोशिश करती थीं। राघव और शारदा का मानना था कि चौक्के-छक्के मारने वाले बच्चे सिर्फ टाइमपास करते हैं और उनका भविष्य नष्ट हो जाता है।
गौरव को इस कड़े अनुशासन का पालन करते हुए, न तो खेलने का मौका मिलता और न ही दोस्तों के साथ घुमने का। उसकी दिनचर्या पढ़ाई और ट्यूशन तक सीमित थी। जहां बाकी बच्चे क्रिकेट खेल रहे थे, गौरव वहीं अपने कमरे में किताबों के बीच बंद था। जब कभी राघव और शारदा इन बच्चों के पास से गुजरते, वे उनका मुँह फेर कर निकल जाते। बच्चों को देख कर वे अजीब तरह से सहम जाते थे, जैसे वे कोई अपराध कर रहे हों।
लेकिन इन बच्चों को किसी की परवाह नहीं थी। पार्क में मस्ती और हंसी-खुशी के बीच उनका समय बिता रहा था। विकेट गिरता तो ‘आलोक! तुमसे तो कुछ नहीं होगा,’ जैसे मजाक और हंसी का दौर शुरू हो जाता। समीर, जो खुद को सबसे अच्छा बैट्समैन मानता था, अपनी बैटिंग से सबको इम्प्रेस करने में लगा था। निखिल के पास हमेशा एक योजना रहती थी। वह हमेशा यह सोचता था कि अगर वह एक दिन बड़ा क्रिकेटर बना तो सबको यह साबित करेगा कि वह सच में क्रिकेट का दीवाना है।
इसी बीच, एक दिन निखिल के दिमाग में एक नया आइडिया आया। ‘‘हमारी टीम को एक टर्नामेंट आयोजित करना चाहिए!’’ उसने सभी दोस्तों से कहा। सभी की आंखों में चमक आ गई। वे अपनी टीम के नाम पर चर्चा करने लगे और आखिरकार टीम का नाम ‘स्पीड रेंजर’ रखा गया। एक छोटी सी टीम बनाकर उन्होंने मैच शुरू किया।
राघवजी का बेटा गौरव, जो इन सबकी हरकतों को दूर से देखता था, अब इस खेल से कुछ ज्यादा ही प्रभावित होने लगा था। उसका मन खेल में आने लगा था, लेकिन उसकी मम्मी शारदा के कड़े नियमों से उसे बाहर निकलने का मौका नहीं मिल पा रहा था। वह दिल ही दिल में सोचता था, ‘‘क्या यही वह खेल है जो हमारे बच्चों की जिंदगी बदल सकता है?’’
एक दिन जब राघवजी और शारदा घर में थे, गौरव ने चुपके से क्रिकेट बैट को निकाला और पार्क की तरफ भागा। वह डरते-डरते बच्चों के पास पहुंचा और धीरे से निखिल से कहा, ‘‘क्या मुझे भी इस खेल में शामिल होने का मौका मिलेगा?’’
निखिल ने गौरव को देखा और हंसते हुए कहा, ‘‘तू तो बड़ा ही डरा-डरा सा है, गौरव। क्रिकेट में भी डर नहीं चलता, तू खेलो, ये खेल सबके लिए है।’’
गौरव ने जो कदम उठाया, वह उसकी पूरी दुनिया को बदलने वाला था। अब तक जिस क्रिकेट को वह सिर्फ किताबों में पढ़ता था, अब वह खुद उस खेल का हिस्सा बन चुका था। अगले कुछ हफ्तों में, गौरव ने अपनी टीम के साथ कई मैच खेले। वह बहुत ही उत्साहित था और उसकी मम्मी को भी इसकी खबर चली गई।
शारदा ने जब यह देखा कि उनका बेटा क्रिकेट में अच्छा प्रदर्शन कर रहा था, तो वह हैरान रह गईं। उसने सोचा, ‘‘क्या यही वह खेल है जो हमारे बच्चों की जिंदगी बदल सकता है?’’
धीरे-धीरे राघवजी और शारदा को यह एहसास हुआ कि बच्चों को उनके सपनों को पूरा करने का मौका देना चाहिए। गौरव को खेल में व्यस्त देखकर उन्होंने अपनी सोच में बदलाव किया और तय किया कि वे उसे क्रिकेट में और ज्यादा अवसर देंगे।
इस तरह, कालोनी के पार्क में खेलते बच्चों की कहानियाँ सिर्फ उनके आनंद और मजे तक ही सीमित नहीं थीं, बल्कि वे एक संदेश भी दे रही थीं कि अगर बच्चे अपनी पसंद का कार्य करें और उनका समर्थन किया जाए, तो वे अपने सपनों को साकार कर सकते हैं।