रात के दस बजे जब वह हताश और निराश सा घर पहुंचा, तो दरवाज़े के अंदर कदम रखते ही उसकी पत्नी की कड़कती आवाज़ गूंज उठी—
“कहाँ थे इतनी रात तक? किस औरत के साथ गुलछर्रे उड़ा रहे थे? तुमको शर्म भी नहीं आती क्या? घर में जवान बेटा और बेटी बैठे हैं। उनकी शादी की उम्र निकलती जा रही है। कब होश आएगा तुम्हें? अगर इनकी जिम्मेदारी नहीं निभानी थी तो पैदा ही क्यों किया था?”
पत्नी की हर एक बात किसी तेज़ धार वाले चाकू की तरह उसके दिल में उतरती चली गई। वह कुछ नहीं बोला, सिर्फ़ चुपचाप खड़ा रहा।
रामेश्वर, 48 साल का एक साधारण आदमी, जिसने हमेशा मेहनत की लेकिन किस्मत ने हर बार उसे धोखा दिया। आज उसे तीसरी बार नौकरी से निकाला गया था। उसके बॉस ने सबके सामने उसे जलील कर दिया था, जैसे वह कोई बेकार चीज़ हो। उसकी आँखों में वह मंजर अब भी ताज़ा था—ऑफिस के सहयोगी उसे अजीब निगाहों से घूर रहे थे, कोई हंसी दबा रहा था, कोई सहानुभूति जता रहा था। लेकिन इन सबका कोई मतलब नहीं था। नौकरी जा चुकी थी।
घर आते समय वह अपने पुराने दोस्तों को फोन मिला रहा था। किसी से मदद की उम्मीद थी, लेकिन किसी ने फोन नहीं उठाया। जिनके साथ कभी रोटी तोड़ी थी, आज वे भी किनारा कर चुके थे।
घर की आर्थिक हालत बेहद खराब हो चुकी थी। दो साल पहले तक वह एक अच्छे पद पर था, लेकिन मंदी की मार और ऑफिस की राजनीति ने उसे बेरोजगार बना दिया। पिछले बारह महीनों में तीन बार अलग-अलग जगहों से निकाला गया था।
उसकी पत्नी गीता अब घर खर्च और बच्चों की पढ़ाई को लेकर परेशान रहती थी। बेटा विशाल 25 साल का हो चुका था, लेकिन अभी तक कोई नौकरी नहीं लगी थी। बेटी साक्षी 23 की थी, उसकी शादी की बात चल रही थी लेकिन हर जगह दहेज की मांग सुनकर रामेश्वर के हाथ-पैर ठंडे पड़ जाते थे।
गीता को रामेश्वर की बेरोजगारी से गहरी चिढ़ थी। उसका गुस्सा रोज़ फूटता, कभी तानों के रूप में, कभी चिल्लाने के रूप में। लेकिन रामेश्वर समझता था कि वह भी परिस्थितियों से हारी हुई थी।
रामेश्वर खाना खाने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। वह चुपचाप अपने कमरे में चला गया और बिस्तर पर लेट गया। उसे याद आया कि कैसे आज ऑफिस में उसके बॉस ने कहा था—
“तुमसे कुछ नहीं होगा! हर बार तुम्हारी परफॉर्मेंस सबसे खराब रहती है। कंपनी को ऐसे नालायक लोग नहीं चाहिए। निकलो यहाँ से!”
उसके भीतर एक टीस उठी। क्या वह वाकई इतना अयोग्य था? या फिर हालात उसके ख़िलाफ़ थे?
बेरोजगारी ने उसके आत्मसम्मान को चकनाचूर कर दिया था। वह कभी अपने बच्चों की आँखों में गर्व देखना चाहता था, लेकिन अब जब भी वे उसे देखते, तो एक निराशा झलकती थी।
रातभर करवटें बदलने के बाद, सुबह होते ही उसने अपने पुराने सहयोगी आनंद को फोन किया। आनंद एक बड़ी कंपनी में मैनेजर था।
“भाई, कहीं कोई काम हो तो बता दो। बहुत बुरी हालत है।”
आनंद ने कुछ देर सोचा, फिर कहा—
“देख रामेश्वर, मैं तेरी परेशानी समझता हूँ। लेकिन कोई भी बड़ी कंपनी अब ऐसे मिडिल एज वालों को आसानी से नहीं रखती। अगर तू सच में कुछ करना चाहता है, तो खुद का छोटा-मोटा बिज़नेस शुरू कर ले।”
रामेश्वर को आनंद की बात सही लगी, लेकिन सवाल यह था कि बिना पैसे के वह कौन सा बिज़नेस शुरू करे?
अगले दो दिन तक उसने बहुत सोचा और आखिर में एक फैसला लिया। उसके घर के पास एक खाली जगह थी, जहाँ से रोज़ सैकड़ों लोग गुजरते थे। उसने वहीं पर एक छोटी-सी चाय की दुकान खोलने का निश्चय किया।
बचत के नाम पर उसके पास कुछ खास नहीं था, लेकिन गीता ने अपने पुराने गहनों में से कुछ गिरवी रखकर दस हज़ार रुपये जुटाए। पहले तो उसने विरोध किया, लेकिन गीता बोली—
“अगर इससे तुम्हारी और घर की हालत सुधर सकती है, तो मैं पीछे नहीं हटूंगी।”
रामेश्वर को एहसास हुआ कि उसकी पत्नी ही उसकी असली ताकत थी।
पहले दिन उसने दुकान पर चाय बनाने की तैयारी की। एक पुराना गैस चूल्हा, कुछ चायपत्ती, दूध और बिस्किट के पैकेट रख लिए। दुकान का नाम रखा— “रामू की चाय”।
पहले दिन सिर्फ़ चार-पांच लोगों ने चाय पी, लेकिन उनमें से एक व्यक्ति बोला—
“चाय बढ़िया बनाते हो, कल फिर आऊंगा।”
रामेश्वर के चेहरे पर हल्की मुस्कान आ गई।
धीरे-धीरे उसकी दुकान चल निकली। अब लोग उसकी चाय की तारीफ करने लगे थे। ऑफिस जाने वाले लोग, रिक्शा चालक, दुकानदार—सब उसकी दुकान पर आते।
विशाल, जो अब तक बेरोजगार था, उसने भी दुकान में हाथ बंटाना शुरू कर दिया। बिस्कुट और नमकीन भी बिकने लगे।
छह महीने बाद, वह महीने के पच्चीस हज़ार रुपये कमाने लगा। यह रकम नौकरी जितनी बड़ी नहीं थी, लेकिन इसमें आत्मसम्मान था, इज्जत थी।
एक दिन, जब रामेश्वर अपनी दुकान पर चाय बना रहा था, तो उसका पुराना बॉस, जो उसे नौकरी से निकाल चुका था, वहां आकर रुका।
“अरे, तुम यहाँ चाय बेच रहे हो?” उसने व्यंग्य से कहा।
रामेश्वर मुस्कुराया और बोला—
“हाँ सर, अब मैं अपना खुद का मालिक हूँ। और आपकी चाय में कुछ खास मसाले डालकर बना रहा हूँ, ट्राई करेंगे?”
उसका बॉस झेंप गया और चुपचाप चाय पीने लगा।
रामेश्वर ने जिंदगी से सीखा कि हारने से कुछ नहीं होता, जब तक इंसान फिर से उठने की हिम्मत रखे। बेरोजगारी और तानों से परेशान होकर अगर वह हिम्मत हार जाता, तो आज भी किसी दूसरे के ताने सुन रहा होता।
अब वह अपने बेटे के साथ मिलकर दुकान को और बड़ा करने की सोच रहा था। उसकी बेटी साक्षी की शादी की बात भी चल रही थी।
वह समझ चुका था—“इंसान की काबिलियत उसकी नौकरी से नहीं, बल्कि उसके हौसले से तय होती है।”