पढ़ें ‘थप्पड़’ की दिल को छूने वाली प्रेरणादायक कहानी, जो आपको साहस, आत्मविश्वास और व्यक्तिगत विकास की ओर प्रेरित करेगी। यह कहानी आपको सशक्त बनाने वाली है।
जैसे ही वह थप्पड़ मेरे गाल पर आकर लगा, मेरे हाथ में जो मेंगो शेक की ट्रे थी, वो दूर जाकर गिरी। ट्रे में रखे सभी गिलास के टुकड़े-टुकड़े हो चुके थे। हर तरफ फर्श पर टूटे हुए गिलास के टुकड़े बिखरे हुए थे। और मैं भी फर्श पर एक तरफ गिरी पड़ी थी। कुछ होश नहीं था, कुछ पल के लिए मेरा दिमाग सुन्न हो चुका था। शायद थप्पड़ बहुत जोर से पड़ा था या फिर मैं उस थप्पड़ के लिए तैयार नहीं थी। उस थप्पड़ की गूंज से पूरे हॉल में शांति हो गई। किसी के भी मुंह से एक लफ्ज़ ना फूटा। मम्मी जी के चेहरे पर कुटिल मुस्कान आ गई जैसे यह थप्पड़ मारकर उनके बेटे ने कोई किला या गढ़ जीत लिया हो।
मैंने कांपते हुए अपने गाल पर हाथ फेरा। गाल जल रहा था, दर्द की एक लहर पूरे शरीर में दौड़ गई। आंखें भर आईं लेकिन आंसू बहाने की हिम्मत नहीं जुटा पाई। सामने खड़े वह, मेरे पति, जिन्होंने कुछ देर पहले ही मेरे हाथों से मेंगो शेक की ट्रे ली थी और फिर अचानक बिना किसी चेतावनी के मुझे थप्पड़ मार दिया था। कारण? शायद वही जो हर बार होता है, उनकी मां का कोई नया इल्जाम, कोई नया आरोप।
मैंने धीरे-धीरे खुद को संभाला और अपने लड़खड़ाते पैरों पर खड़ी हो गई। फर्श पर बिखरे कांच के टुकड़े मेरे पैरों में चुभ रहे थे, लेकिन उससे ज्यादा गहरी चोट मेरे आत्मसम्मान पर लगी थी। हॉल में खड़े रिश्तेदार, नौकर-चाकर, सभी सन्न थे। कुछ ने निगाहें फेर लीं, कुछ के चेहरे पर हल्की सहानुभूति दिखी, लेकिन किसी ने कुछ नहीं कहा।
“बहू को ज़रा अदब सिखाना ज़रूरी था,” मम्मी जी ने धीरे से कहा और अपनी साड़ी का पल्लू ठीक करते हुए आगे बढ़ गईं। उनकी आवाज़ में जीत की चमक थी।
मुझे अभी भी यकीन नहीं हो रहा था कि मेरे साथ यह सब कुछ हो गया। दो साल पहले जब इस घर में आई थी, तब सब कुछ कितना अलग था। शादी के शुरुआती दिन कितने मीठे थे, कितने सपनों से भरे हुए। वे भी तो कितने अलग थे—मुझे प्यार करने वाले, मेरा ध्यान रखने वाले। लेकिन जैसे-जैसे दिन बीतते गए, मां-बेटे की इस जोड़ी का असली रूप सामने आने लगा। पहले तानों से शुरुआत हुई, फिर रोक-टोक, फिर छोटी-छोटी बातों पर आवाज़ उठाना, और आज… आज यह थप्पड़।
मन में अचानक एक सवाल उठा—क्या यही मेरा भविष्य है? क्या यही मेरी ज़िन्दगी होगी, जहां मैं किसी की ग़ुलाम बनकर, अपनी पहचान खोकर रहूंगी?
उस रात मैंने अपने कमरे में बैठकर बहुत सोचा। आईने में देखा तो गाल पर थप्पड़ का लाल निशान अब भी था। हाथ फेरने पर दर्द की लहर उठती, लेकिन यह दर्द अब मुझे कम लग रहा था। असली तकलीफ तो इस बात की थी कि मैंने इतना सब कुछ सहा क्यों?
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सुबह हुई, मैंने अपना बैग उठाया। मम्मी जी और वे दोनों ड्राइंग रूम में बैठे थे, जैसे कुछ हुआ ही न हो। मैंने चुपचाप दरवाजा खोला और बाहर निकल गई। इस बार किसी ने मुझे रोका नहीं। शायद उन्हें लगा कि मैं हमेशा की तरह वापस आ जाऊंगी।
गली से गुजरते हुए मेरा दिल तेजी से धड़क रहा था। यह पहली बार था जब मैं इस घर को छोड़ रही थी, उस बंधन को तोड़ रही थी जिसने मुझे कैद कर रखा था। लेकिन क्या यह इतना आसान होगा? क्या वे मुझे यूं ही जाने देंगे? मेरे कदम खुद से ही सवाल पूछ रहे थे, लेकिन एक अजीब सी हिम्मत ने मेरे दिल में घर कर लिया था।
बस स्टॉप तक पहुंची ही थी कि पीछे से किसी ने मेरा हाथ पकड़ लिया। मैं चौंककर पलटी, सामने वे खड़े थे। आंखों में वही घमंड, वही अधिकार। “घर चलो,” उन्होंने ठंडे लहजे में कहा।
मैंने अपनी कलाई छुड़ाने की कोशिश की, लेकिन उनकी पकड़ मजबूत थी। मैं हिम्मत करके बोली, “अब मेरा घर वह नहीं है।”
इतना सुनते ही उनका चेहरा लाल हो गया। “तुम्हें लगता है मैं तुम्हें यूं ही जाने दूंगा? मेरे बिना तुम कुछ नहीं कर सकती। तुम्हारा कोई सहारा नहीं है।”
मैंने पहली बार उनकी आंखों में झांका और मुस्कुरा दी। “सहारा चाहिए भी नहीं। अब मैं खुद अपने पैरों पर खड़ी होऊंगी।”
मैंने झटके से अपना हाथ छुड़ाया और आगे बढ़ गई। लेकिन तभी पीछे से उनकी आवाज़ आई, “अगर तुम गई, तो कभी लौट नहीं पाओगी!”
मैंने बिना रुके कहा, “यही तो चाहती हूं।”
बस आई, और मैं उसमें चढ़ गई। सीट पर बैठते ही मैंने एक गहरी सांस ली। खिड़की से बाहर देखा, वे अब भी वहीं खड़े थे, शायद उन्हें यकीन नहीं हो रहा था कि मैं सच में चली गई। लेकिन यह मेरा नया सफर था—खुद के लिए, खुद से।
गाड़ी चल पड़ी, और मैंने पीछे देखना बंद कर दिया।